
पितृदोष की शांति के उपाय
सर्वपितृ अमावस्या पर अवश्य प्रयोग करें पितृदोष एक अदृश्य बाधा है। यह बाधा पितरों द्वारा रुष्ट होने के कारण होती है। पितरों के रुष्ट होने के बहुत से कारण हो सकते हैं, जैसे आपके आचरण से, किसी परिजन द्वारा की गई गलती से, श्राद्ध आदि कर्म न करने से, अंत्येष्टि कर्म आदि में हुई किसी त्रुटि के कारण भी हो सकता है।
1. सामान्य उपायों में षोडश पिंडदान, सर्पपूजा, ब्राह्मण को गौदान, कन्यादान, कुआं, बावड़ी, तालाब आदि बनवाना, मंदिर प्रांगण में पीपल, बड़ (बरगद) आदि देववृक्ष लगवाना एवं विष्णु मंत्रों का जाप, प्रेत श्राप को दूर करने के लिए श्रीमद्द्भागवत का पाठ करना चाहिए।
2. वेदों और पुराणों में पितरों की संतुष्टि के लिए मंत्र, स्तोत्र एवं सूक्तों का वर्णन है जिसके नित्य पठन से किसी भी प्रकार की पितृ बाधा क्यों न हो, वह शांत हो जाती है। अगर नित्य पठन संभव न हो तो कम से कम प्रत्येक माह की अमावस्या और आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या अर्थात पितृपक्ष में अवश्य करना चाहिए। वैसे तो कुंडली में किस प्रकार का पितृदोष है, उस पितृदोष के प्रकार के हिसाब से पितृदोष शांति करवाना अच्छा होता है।
3. भगवान भोलेनाथ की तस्वीर या प्रतिमा के समक्ष बैठकर या घर में ही भगवान भोलेनाथ का ध्यान कर निम्न मंत्र की 1 माला नित्य जाप करने से समस्त प्रकार के पितृदोष संकट बाधा आदि शांत होकर शुभत्व की प्राप्ति होती है। मंत्र जाप प्रात: या सायंकाल कभी भी कर सकते हैं।
मंत्र : ‘ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय च धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात।’
4. अमावस्या को पितरों के निमित्त पवित्रतापूर्वक बनाया गया भोजन तथा चावल बूरा, घी एवं 1 रोटी गाय को खिलाने से पितृदोष शांत होता है।
5. अपने माता-पिता व बुजुर्गों का सम्मान, सभी स्त्री कुल का आदर-सम्मान करने और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से पितर हमेशा प्रसन्न रहते हैं।
6. पितृदोषजनित संतान कष्ट को दूर करने के लिए ‘हरिवंश पुराण’ का श्रवण करें या स्वयं नियमित रूप से पाठ करें।
7. प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती या सुन्दरकाण्ड का पाठ करने से भी इस दोष में कमी आती है।
8. सूर्य पिता है अत: ताम्बे के लोटे में जल भरकर उसमें लाल फूल, लाल चंदन का चूरा, रोली आदि डालकर सूर्यदेव को अर्घ्य देकर 11 बार ‘ॐ घृणि सूर्याय नम:’ मंत्र का जाप करने से पितरों की प्रसन्नता एवं उनकी ऊर्ध्व गति होती है।
9. अमावस्या वाले दिन अवश्य अपने पूर्वजों के नाम दुग्ध, चीनी, सफेद कपड़ा, दक्षिणा आदि किसी मंदिर में अथवा किसी योग्य ब्राह्मण को दान करना चाहिए।
10. पितृ पक्ष में पीपल की परिक्रमा अवश्य करें। अगर 108 परिक्रमा लगाई जाए तो पितृदोष अवश्य दूर होगा।
11.किसी मंदिर के परिसर में पीपल अथवा बड़ का वृक्ष लगाएं और रोज उसमें जल डालें, उसकी देखभाल करें। जैसे-जैसे वृक्ष फलता-फूलता जाएगा, पितृदोष दूर होता जाएगा, क्योंकि इन वृक्षों पर ही सारे देवी-देवता, इतर योनियां व पितर आदि निवास करते हैं।
12. यदि आपने किसी का हक छीना है या किसी मजबूर व्यक्ति की धन-संपत्ति का हरण किया है तो उसका हक या संपत्ति उसको अवश्य लौटा दें।
13. पितृदोष से पीड़ित व्यक्ति को किसी भी एक अमावस्या से लेकर दूसरी अमावस्या तक अर्थात 1 माह तक किसी पीपल के वृक्ष के नीचे सूर्योदय काल में शुद्ध घी का 1 दीपक लगाना चाहिए और ये क्रम टूटना नहीं चाहिए।
14.एक माह बीतने पर जो अमावस्या आए, उस दिन एक प्रयोग और करें। इसके लिए किसी देसी गाय या दूध देने वाली गाय का थोड़ा-सा गौमूत्र प्राप्त करें और उसे थोड़े जल में मिलाकर इस जल को पीपल वृक्ष की जड़ों में डाल दें। इसके बाद पीपल वृक्ष के नीचे 5 अगरबत्ती, 1 नारियल और शुद्ध घी का दीपक लगाकर अपने पूर्वजों से श्रद्धापूर्वक अपने कल्याण की कामना करें और घर आकर उसी दिन दोपहर में कुछ गरीबों को भोजन करा दें। ऐसा करने पर पितृदोष शांत हो जाएगा।
15. घर में कुआं हो या पीने का पानी रखने की जगह हो, उस जगह की शुद्धता का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि ये पितृ स्थान माना जाता है। इसके अलावा पशुओं के लिए पीने का पानी भरवाने तथा प्याऊ लगवाने अथवा आवारा कुत्तों को जलेबी खिलाने से भी पितृदोष शांत होता है।
16. अगर पितृदोष के कारण अत्यधिक परेशानी हो, संतान हानि हो या संतान को कष्ट हो तो किसी शुभ समय में अपने पितरों को प्रणाम कर उनसे प्रसन्न होने की प्रार्थना करें और अपने द्वारा जाने-अनजाने में किए गए अपराध व उपेक्षा के लिए क्षमा-याचना करें। फिर घर अथवा शिवालय में पितृगायत्री मंत्र का सवा लाख विधि से जाप कराएं। जाप के उपरांत दशांश हवन के बाद संकल्प लें कि इसका पूर्ण फल पितरों को प्राप्त हो, ऐसा करने से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, क्योंकि उनकी मुक्ति का मार्ग आपने प्रशस्त किया होता है।
विशेष उपाय :पितृदोष की शांति हेतु यह उपाय बहुत ही अनुभूत और अचूक फल देने वाला देखा गया है। वह यह कि किसी गरीब की कन्या के विवाह में गुप्त रूप से अथवा प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सहयोग करना। (लेकिन यह सहयोग पूरे दिल से होना चाहिए, केवल दिखावे या अपनी बढ़ाई कराने के लिए नहीं)। इससे पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप मिलने वाले पुण्य फल से पितरों को बल और तेज मिलता है जिससे वे ऊर्ध्व लोकों की ओर गति करते हुए पुण्य लोकों को प्राप्त होते हैं। अगर किसी विशेष कामना को लेकर किसी परिजन की आत्मा पितृदोष उत्पन्न करती है तो ऐसी स्थिति में मोह को त्यागकर उसकी सद्गति के लिए ‘गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र’ का पाठ करना चाहिए।
पितृदोष दूर करने का अत्यंत सरल उपाय घर के वायव्य कोण (North-West)में सरसों के तेल में बराबर मात्रा में अगर का तेल मिलाकर दीपक पूरे पितृपक्ष में लगाना चाहिए। दीया पीतल का हो तो ज्यादा अच्छा है। दीपक कम से कम 10 मिनट जलना आवश्यक है।
17…पितृपक्ष में अपने पितरों के नाम से संकल्प कर मृत्युंजय मंत्र/ गायत्री मंत्र विष्णु सहस्रनाम/ गीता पाठ आदि में जो भी संभव हो करें उसका फल अपने पितरों को अर्पित कर दें।उनकी कृपा, प्रसन्नता और शांति हेतु।
1..सीताराम
2..श्रीकृष्णम् शरणम् गच्छामि।
3..ॐ श्रींं श्रीनिवासाय नमः।
४..ॐ नमः शिवाय शिवजी सदा सहाय ।
ॐ नमः शिवाय गुरु जी सदा सहाय।।
5. जय जय श्रीराम कृष्ण हरि।
इन चारों में से किसी भी एक मंत्र का यथासंभव जप कर उस जाप का फल अपने पितरों को अर्पित करें।
।। पितृ-सूक्तम् ।।
पितृ-सूक्तम् पितृदोष निवारण में शुभ फल प्रदान करने वाला सभी के लिए लाभदायी है। पितृ-सूक्तम् का पाठ करने से पितृदोष की शांति होती है और सर्वबाधा दूर होकर उन्नति की प्राप्ति होती है। इससे उनके जीवन के समस्त संकट दूर होकर उन्हें पितरों का आशीष मिलता है।
उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु।।१।।
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्।।२।।
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु।।३।।
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः।।४।।
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः।।५।।
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्।।६।।
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात।।७।।
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः।।८।।
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्।।९।।
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्।।१०।।
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन।।११।।
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति।।१२।।
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।।१३।।
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम।।१४।।
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात।।१५।।
।। ॐ शांति: शांति:शांति: ।।
।। श्राद्ध महिमा ।।
हिन्दू धर्म में एक अत्यन्त सुरभित पुष्प है कृतज्ञता की भावना, जो कि बालक में अपने माता-पिता के प्रति स्पष्ट परिलक्षित होती है। हिन्दू धर्म का व्यक्ति अपने जीवित माता-पिता की सेवा तो करता ही है, उनके देहावसान के बाद भी उनके कल्याण की भावना करता है एवं उनके अधूरे शुभ कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है। ‘श्राद्ध-विधि’ इसी भावना पर आधारित है।
मृत्यु के बाद जीवात्मा को उत्तम, मध्यम एवं कनिष्ठ कर्मानुसार स्वर्ग नरक में स्थान मिलता है। पाप-पुण्य क्षीण होने पर वह पुनः मृत्युलोक (पृथ्वी) में आता है। स्वर्ग में जाना यह पितृयान मार्ग है एवं जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना यह देवयान मार्ग है।
पितृयान मार्ग से जाने वाले जीव पितृलोक से होकर चन्द्रलोक में जाते हैं। चन्द्रलोक में अमृतान्न का सेवन करके निर्वाह करते हैं। यह अमृतान्न कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा की कलाओं के साथ क्षीण होता रहता है। अतः कृष्ण पक्ष में वंशजों को उनके लिए आहार पहुँचाना चाहिए, इसीलिए श्राद्ध एवं पिण्डदान की व्यवस्था की गयी है। शास्त्रों में आता है कि अमावस्या के दिन तो पितृतर्पण अवश्य करना चाहिए। आधुनिक विचारधारा एवं नास्तिकता के समर्थक शंका कर सकते हैं कि ‘यहाँ दान किया गया अन्न पितरों तक कैसे पहुँच सकता है ?’ इसे इस प्रकार समझना चाहिये- जैसे भारत की मुद्रा ‘रुपया’ अमेरिका में ‘डॉलर’ एवं लंदन में ‘पाउण्ड’ होकर मिल सकती है एवं अमेरिका के डॉलर जापान में येन एवं दुबई में दीनार होकर मिल सकते हैं। यदि इस विश्व की नन्हीं सी मानव रचित सरकारें इस प्रकार मुद्राओं का रुपान्तरण कर सकती हैं तो ईश्वर की सर्वसमर्थ सरकार आपके द्वारा श्राद्ध में अर्पित वस्तुओं को पितरों के योग्य करके उन तक पहुँचा दे, इसमें क्या आश्चर्य है ?
मान लो, आपके पूर्वज अभी पितृलोक में नहीं, अपित मनुष्य रूप में हैं। आप उनके लिए श्राद्ध करते हो तो श्राद्ध के बल पर उस दिन वे जहाँ होंगे वहाँ उन्हें कुछ न कुछ लाभ होगा। ऐसा अनुभव अनेकों लोगों ने करके देखा है कि उनके दूर देश में रह रहे माता-पिता पर कोई विपत्ति ना आये उसके लिये वे अपने यहाँ ब्राह्मण भोज तथा दान आदि का आयोजन करते हैं तो उसका तुरन्त लाभ उन्हें दूर देश में किसी अन्य रूप से प्राप्त हो जाता है। और यदि मान लो, आपके पिता की मुक्ति हो गयी हो तो उनके लिए किया गया श्राद्ध कहाँ जाएगा ? जैसे, आप किसी को मनीआर्डर भेजते हो, वह व्यक्ति मकान या आफिस खाली करके चला गया हो तो वह मनीआर्डर आप ही को वापस मिलता है, वैसे ही श्राद्ध के निमित्त से किया गया दान आप ही को विशेष लाभ देता है।
दूरभाष और दूरदर्शन आदि यंत्र हजारों किलोमीटर का अंतराल दूर करते हैं, यह प्रत्यक्ष है। इन यंत्रों से भी मन्त्रों का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है | देवलोक एवं पितृलोक के वासियों का आयुष्य मानवीय आयुष्य से हजारों वर्ष ज्यादा होता है। इससे पितर एवं पितृलोक को मानकर उनका लाभ उठाना चाहिए तथा श्राद्ध करना चाहिए।
पैठण के महान आत्मज्ञानी संत श्रीएकनाथजी महाराज को पैठण के निंदक ब्राह्मणों ने जाति से बाहर कर दिया था एवं उनके श्राद्ध-भोज का बहिष्कार किया था। उन योगसम्पन्न एकनाथजी ने ब्राह्मणों के एवं अपने पितृलोक वासी पितरों को बुलाकर भोजन कराया। यह देखकर पैठण के ब्राह्मण चकित रह गये एवं उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमायाचना की। जिन्होंने हमें पाला-पोसा, बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, हममें भक्ति, ज्ञान एवं धर्म के संस्कारों का सिंचन किया उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण करके उन्हें तर्पण-श्राद्ध से प्रसन्न करने के दिन ही हैं श्राद्धपक्ष। श्राद्धपक्ष आश्विन के कृष्ण पक्ष में की गयी श्राद्ध-विधि गया क्षेत्र में की गयी श्राद्ध-विधि के बराबर मानी जाती है। इस विधि में मृतात्मा की पूजा एवं उनकी इच्छा-तृप्ति का सिद्धान्त समाहित होता है।
प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर देवऋण, पितृऋण एवं ऋषिऋण रहता है। श्राद्धक्रिया द्वारा पितृऋण से मुक्त हुआ जाता है। देवताओं को यज्ञ-भाग देने पर देवऋण से मुक्त हुआ जाता है।ऋषि-मुनि-संतों के विचारों को आदर्शो को अपने जीवन में उतारने से, उनका प्रचार-प्रसार करने से एवं उन्हें लक्ष्य मानकर आदरसहित आचरण करने से ऋषिऋण से मुक्त हुआ जाता है।
पुराणों में आता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या (पितृमोक्ष अमावस्या) के दिन सूर्य एवं चन्द्र की युति होती है। सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है। इस दिन हमारे पितर यमलोक से अपना निवास छोड़कर सूक्ष्म रूप से मृत्युलोक में अपने वंशजों के निवास स्थान में रहते हैं। अतः उस दिन उनके लिए विभिन्न श्राद्ध करने से वे तृप्त होते हैं।
पौराणिक कथानुसार महाभारत के युद्ध में दुर्योधन का विश्वासपात्र मित्र कर्ण देह छोड़कर ऊर्ध्वलोक में गया एवं वीरोचित गति को प्राप्त हुआ। मृत्युलोक में वह दान करने के लिए प्रसिद्ध था। उसका पुण्य कई गुना बढ़ चुका था एवं दान स्वर्ण-रजत के ढेर के रूप में उसके सामने आया।
कर्ण ने धन का दान तो किया था किन्तु अन्नदान की उपेक्षा की थी अतः उसे धन तो बहुत मिला किन्तु क्षुधातृप्ति की कोई सामग्री उसे न दी गयी। कर्ण ने यमराज से प्रार्थना की तो यमराज ने उसे 15 दिन के लिए पृथ्वी पर जाने की सहमति दे दी। पृथ्वी पर आकर पहले उसने अन्नदान किया। अन्नदान की जो उपेक्षा की थी उसका बदला चुकाने के लिए 15 दिन तक साधु-संतों, गरीबों-ब्राह्मणों को अन्न-जल से तृप्त किया एवं श्राद्धविधि भी की। वह समय आश्विन मास का कृष्णपक्ष ही था। जब कर्ण ऊर्ध्वलोक में लौटा तब उसे सभी प्रकार की खाद्य सामग्रियाँ ससम्मान दी गयीं।
धर्मराज यम ने वरदान दिया कि ‘इस समय जो मृतात्माओं के निमित्त अन्न जल आदि अर्पित करेगा, उसकी अंजलि मृतात्मा जहाँ भी होगी वहाँ तक अवश्य पहुँचेगी।’
जो निःसंतान ही चल बसें हों उन मृतात्माओं के लिए भी यदि कोई व्यक्ति इन दिनों में श्राद्ध-तर्पण करेगा अथवा जलांजलि देगा तो वह भी उन तक पहुँचेगा। जिनकी मरण तिथि ज्ञात न हो उनके लिए भी इस अवधि के दौरान दी गयी अंजलि पहुँचती है।
वैशाख शुक्ल तृतीया, कार्तिक शुक्ल नवमी, आश्विन कृष्ण द्वादशी एवं पौष की अमावस्या ये चार तिथियाँ युगों की आदि तिथियाँ हैं। इन दिनों में श्राद्ध करना अत्यंत श्रेयस्कर है। श्राद्धपक्ष के समय दिन में तीन बार स्नान एवं एक बार भोजन का नियम पालते हुए श्राद्ध विधि करनी चाहिए।
जिस दिन श्राद्ध करना हो उस दिन किसी विशिष्ट व्यक्ति को आमन्त्रण न दें, नहीं तो उसी की आवभगत में ध्यान लगा रहेगा एवं पितरों का अनादर हो जाएगा। इससे पितर अतृप्त होकर नाराज भी हो सकते हैं। जिस दिन श्राद्ध करना हो उस दिन विशेष उत्साहपूर्वक सत्संग, कीर्तन, जप, ध्यान आदि करके अंतःकरण पवित्र रखना चाहिए।
जिनका श्राद्ध किया जाये उन माता, पिता, पति, पत्नी, सम्बन्धी आदि का स्मरण करके उन्हें याद दिलायें कि ‘आप देह नहीं हो। आपकी देह तो समाप्त हो चुकी है, किन्तु आप विद्यमान हो। आप आत्मा हो.. शाश्वत हो… चैतन्य हो। अपने शाश्वत स्वरूप को निहार कर हे पितृ आत्माओं ! आप भी परमात्ममय हो जाओ। हे पितरात्माओं ! हे पुण्यात्माओं ! अपने परमात्म-स्वभाव का स्मरण करके जन्म मृत्यु के चक्र से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाओ। हे पितृ आत्माओं ! आपको हमारा प्रणाम हैं।’
सूक्ष्म जगत् के लोगों को हमारी श्रद्धा और श्रद्धा से दी गयी वस्तु से तृप्ति का एहसास होता है। बदले में वे भी हमें मदद करते हैं, प्रेरणा देते हैं, प्रकाश देते हैं, आनन्द और शाँति देते हैं। हमारे घर में किसी सन्तान का जन्म होने वाला हो तो वे अच्छी आत्माओं को भेजने में सहयोग करते हैं। श्राद्ध की बड़ी महिमा है। पूर्वजों से उऋण होने के लिए, उनके शुभ आशीर्वाद से उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है।
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