
01. अनन्त चतुर्दशी व्रत कथा एवं पूजा-विधि
02. अनन्त चतुर्दशी माहात्म्य एवं रहस्य
03.अनन्त नारायण स्तोत्रम् (हिंदी अर्थ सहित)
अनन्त चतुर्दशी व्रत
भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी 06 सितंबर शनिवार 2025
१.ॐ श्रीं अनंताय नमः
२ॐ ह्रीं नमो नारायणाय अनन्ताय श्रीं ॐ
३.ॐ अनन्तदेवाय च विदमहे विश्वरूपाय धीमहि तन्नो विष्णु प्रचोदयात्
४..अनन्तं ध्यायामहे विश्वरूपं प्रपद्यामहे।अनादिनित्यं विष्णुं तन्नो मोक्षाय प्रचोदयात् ॥
५..ॐ नमो भगवते अनन्ताय विश्वरूपाय सर्वेश्वरायप्रलयकालानलसंहारकाय महापुरुषाय परब्रह्मणे नमः ।
ॐ अनन्तोऽसि अनन्तबाहो अनन्तशक्ते अनन्तगतेमाम् अमृतत्वाय पावय पावय नमः ॥
अनन्त चतुर्दशी व्रत कथा एवं पूजा-विधि
अनन्त चतुर्दशी का महत्वअनन्त चतुर्दशी का पर्व भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी को मनाया जाता है। यह दिन भगवान विष्णु के “अनन्त” स्वरूप की उपासना के लिए अत्यंत पवित्र माना गया है।शास्त्रों में कहा गया है – इस दिन भगवान नारायण ने विराट विश्वरूप धारण कर समस्त ब्रह्माण्ड को अपने सूक्ष्म शरीर में धारण किया। अनंत चतुर्दशी व्रत रखने से या इस दिन भगवान अनंत के मंत्रों के जाप से बर्ष भर अनजाने में किए भक्ष्य अभक्ष्य के दोष से मुक्ति मिलती है।
अनंत चतुर्दशी के व्रत से मनोकामना पूरी होने का योग बनता है।
अनन्त चतुर्दशी पर व्रत रखने से धन, सुख, संतान, दीर्घायु तथा जीवन में स्थिरता प्राप्त होती है। इस दिन गणेश प्रतिमा विसर्जन भी होता है, अतः यह पर्व दोहरी महिमा से युक्त है।–2025 का शुभ समयभाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी 06 सितंबर शनिवार 2025तिथि आरंभ: 6 सितम्बर, प्रातः 03:12 बजेतिथि समाप्ति: 7 सितम्बर, प्रातः 01:41 बजेपूजा का श्रेष्ठ समय: 6 सितम्बर प्रातः 05:21 बजे से लेकर रात्रि 01:41 बजे तक
व्रत पूर्व तैयारी
1. प्रातःकाल स्नान कर स्वच्छ पीले या सफेद वस्त्र धारण करें।
2. घर के पवित्र स्थान को गंगाजल से शुद्ध करें।
3. लकड़ी की चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर उस पर भगवान विष्णु और गणेश जी की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें।
4. एक कलश स्थापित करें – उसमें पवित्र जल, आम की पत्तियाँ रखें और ऊपर नारियल रखें।
5. अनन्त सूत्र तैयार करें – यह पीले या लाल धागे का होता है जिसमें 14 गांठें होती हैं।
अनन्त चतुर्दशी व्रत-विधि
1. दीपक व धूप जलाकर भगवान की स्तुति करें।
2. भगवान गणेश का पूजन करें और फिर विष्णुजी का ध्यान करें –“शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं, विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं, वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥”
3. चौकी पर 14 तिलक करें और हर तिलक पर 1 पूड़ी और 1 पुआ (या मिठाई) अर्पित करें। यह 14 लोकों का प्रतीक है।
4. पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, गुड़) से भगवान का अभिषेक करें और पूजा में प्रयोग करें। भगवान विष्णु कीकिसी भी पूजा में तुलसी दल अवश्य चढ़ाएं और उनके प्रसाद में तुलसी दल अवश्य मिलाकर अर्पित करें।
5. अनन्त सूत्र को पंचामृत में डुबोकर भगवान विष्णु के चरणों में अर्पित करें।
6. पूजा के बाद सूत्र को पुरुष दाहिनी बांह में और स्त्रियाँ बायीं बांह में बाँधती हैं।इस समय मंत्र जपें –“ॐ अनन्ताय नमः”
7. फल, पुष्प, तुलसीदल, नारियल और नैवेद्य अर्पित करें।
8. इसके बाद अनन्त चतुर्दशी की व्रत-कथा सुनें। और आरती करें।(श्रद्धालु चाहे तो इस दिन विष्णु सहस्रनाम एवं पुरुष सूक्त कापाठ भी कर सकते हैं।)इस प्रकार श्रद्धापूर्वक अनन्त चतुर्दशी व्रत-पूजन करने से भगवान विष्णु अपने भक्तों को अनन्त आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
व्रत का नियम
इस दिन उपवास रखें और केवल फलाहार करें।पूजा के बाद प्रसाद ग्रहण करें।अनन्त सूत्र 14 दिन तक धारण करना चाहिए।व्रत का संकल्प 14 वर्षों तक करने की परंपरा है। चौदह बर्ष करने के बाद उद्यापन कर व्रत छोड़ सकते हैं | व्रत का फलपाप नाश होता है।रोग, शोक और क्लेश दूर होते हैं।धन-धान्य और सुख-समृद्धि प्राप्त होती है।संतान-सुख और वैवाहिक जीवन में स्थिरता आती है।अंततः मोक्ष की प्राप्ति होती है।
अनंत चतुर्दशी व्रत कथा
एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे।एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर ‘अंधों की संतान अंधी’ कह कर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया। यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया। पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- ‘हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।’
इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने उन्हें एक कथा सुनाई – प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी। जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांध कर दे दिए। कौंडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परंतु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर संध्या करने लगे।सुशीला ने देखा- वहां पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई। कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनंत जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं। पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनंत भगवान प्रकट होकर बोले- ‘हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्षपर्यंत व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे। कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।’ श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।
अनन्त नारायण की जय
कथा सुनने के बाद आरती कर प्रसाद वितरण करे |
अनन्त चतुर्दशी माहात्म्य एवं रहस्य
अनन्त चतुर्दशी का मूल अर्थभाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी व्रत एवं उत्सव मनाया जाता है।यह दिन भगवान श्रीनारायण के अनन्त विराट स्वरूप के प्राकट्य का स्मरण है।”अनन्त” का अर्थ है — जिसका कोई आदि और अंत न हो, जो नित्य, अविनाशी, सर्वव्यापी और अखण्ड हो।भगवान विष्णु का यह स्वरूप सम्पूर्ण चराचर ब्रह्माण्ड का आधार है।इसी दिन भगवान ने सूक्ष्म रूप से ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर प्रकृति में चेतना और जीवों में जीवन का संचार किया।. शास्त्रीय आधारऋग्वेद (पुरुषसूक्त १०/९०) — “सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्…”(विराट पुरुष सहस्रों सिर, नेत्र और चरणों वाले हैं और सबमें व्यापते हैं।)श्रीमद्भागवतम् (२/१/२४-३४) — ब्रह्माण्ड में चेतना देने हेतु भगवान के प्रवेश का वर्णन।
देवीभागवत पुराण — आदि पुरुष गोविन्द और आद्या प्रकृति राधिका से महाविराट पुरुष की उत्पत्ति।विष्णु पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण — महाविष्णु के विराट स्वरूप और उनके अंशरूपों का विस्तार।इन आधारों पर ही अनन्त चतुर्दशी का महत्व हमारे शास्त्रों में प्रतिपादित है।. सृष्टि की उत्पत्ति और महाविराट पुरुषसृष्टि से पूर्व परमधाम में आदिपुरुष गोविन्द (कृष्ण) प्रकट हुए।उनके वामांग से परमप्रकृति शक्ति श्रीराधिका प्रकट हुईं।दोनों के संयोग से एक दिव्य बालक उत्पन्न हुआ — महाविराट पुरुष (महाविष्णु)।उनके एक-एक रोमकूप से अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुई।यही महाविराट पुरुष (महाविष्णु) परमात्मा हैं —सभी जीवात्माओं के आत्मरूप,सभी कर्मों के साक्षी,और सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि के सूक्ष्म धाम।
महाविष्णु के त्रि-रूपमहाविष्णु ब्रह्माण्ड में तीन प्रधान रूपों में प्रकट होते हैं —
१.कारणोदकशायी विष्णु — समस्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति के कारण।
२.गर्भोदकशायी विष्णु — प्रत्येक ब्रह्माण्ड में स्थित होकर चेतना देना।
३..क्षीरोदकशायी विष्णु — प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा रूप से स्थित।
इनके दो विशेष रूप हैं —(क) त्रिलोकपति विष्णु — सत्वगुणी जगतपालक।(ख) पृथ्वीपति विष्णु (भगवान हरि) — अवतार रूप में पृथ्वी पर भगवान राम, कृष्ण आदि लीलाएँ करते हैं। अनन्त पुरुष का विराट स्वरूपमहाविराट पुरुष के शरीर में ही चतुर्दश लोक स्थित हैं —सत्यलोक — मुखस्वर्लोक — भुजाएँपृथ्वी — उदरपाताल — चरण33 कोटि देवता, नवग्रह, आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनी कुमार, दिग्पाल, मातृकाएँ, महाविद्याएँ — सब उनके ही अंग-प्रत्यंग हैं।सभी जीव-जंतु, पक्षी, वृक्ष, कीट, भूत-प्रेत आदि उसी विराट पुरुष के भीतर विद्यमान हैं।
अनन्त चतुर्दशी की घटनाब्रह्माजी ने जब सृष्टि-रचना आरम्भ की तो पंचतत्व निर्जीव थे।उन्होंने भगवान से प्रार्थना की।तब महाविराट पुरुष ने ब्रह्माण्ड-पिण्ड में सूक्ष्म रूप से प्रवेश किया।उसी दिन को अनन्त चतुर्दशी कहते हैं।इस प्रवेश के बाद पंचतत्वों को उनकी-उनकी शक्तियाँ मिलीं —पृथ्वी को अन्नोत्पत्ति,जल को स्निग्धता,अग्नि को दाहकता,वायु को प्राणशक्ति,आकाश को शब्दगुण।इसी से सृष्टि जीवंत हुई। अनन्त संकर्षण रूपभगवान विष्णु का एक अद्भुत स्वरूप है — अनन्त संकर्षण।यह ब्रह्मांडीय तमोगुण के अधिष्ठाता है। योगनिद्रा और कालरात्रि इनकी शक्ति है यह तीन रूप में ब्रह्मांड उपस्थित रहते हैं १. विश्वरूप २. पालनकर्ता विष्णु रूप ३. अनंत शेषनाग से पाताल में वे अनन्त शेष नाग के रूप में पाताल में विराजमान हैं।जगदाधार होकर उन्हीं पर क्षीरसागर में श्रीनारायण रूप शयन करते हैं।इनके साथ कमला देवी (लक्ष्मी), भू-देवी तथा नीलादेवी उनकी शक्तियाँ मानी जाती हैं।इसके अतिरिक्त भगवान विष्णु के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह आदि तामसिक विष्णु-अवतारअनंत संकर्षण की शक्ति अंश से प्रकट होते हैं।प्रलयकाल में यही अनन्त पुरुष बालमुकुंद बनकर वटपत्र पर शयन करते हैं। ये तमोगुण के अधिष्ठाता होकर प्रलय और काल के नियंता भी हैं।इसके अतिरिक्त यमदेव शनिदेव, कालदेव महाकाल देव भी इनके ही कलांश है।
अन्य अवतार और संबंधभगवान शिव के रूद्र एवं भैरव स्वरूप का संबंध अनंत संकर्षण से माना जाता है।भगवान संकर्षण के शरीर में ग्यारह रूद्रों का निवास माना जाता है।प्रलयकाल उनकी भुकुटि से प्रलयकर्ता और संहारक कालाग्नि रूद्र की उत्पत्ति होती हैं।भगवान शंकर के कालभैरव अवतार भी अनन्त संकर्षण का ही प्रतीक माना जाता है।
मनुष्य-शरीर और विराट पुरुषशास्त्र कहते हैं — “यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे”।अर्थात जैसे ब्रह्माण्ड है, वैसा ही पिण्ड (मनुष्य शरीर) है।मनुष्य के भीतर स्थित कुण्डलिनी चक्र १४ लोकों के प्रतीक हैं।साधना और सद्गुरु-कृपा से मनुष्य अपने भीतर उस विराट अनन्त पुरुष का अनुभव कर सकता है।
अनन्त चतुर्दशी व्रत का महत्व
इस दिन भगवान अनन्त का पूजन कर अनन्त सूत्र (रेशम का डोरा) बाँधा जाता है।यह सूत्र भगवान की नित्य, शाश्वत धारा का प्रतीक है।इसे धारण करने वाला व्यक्ति संकट, रोग, शोक और दरिद्रता से मुक्त होता है।उसे घर-परिवार में सुख-समृद्धि और अंततः मोक्ष की प्राप्ति होती है।
प्रचलित व्रत कथा
प्राचीन काल में नल नामक राजा थे। वे अनन्त चतुर्दशी का व्रत करते थे।एक बार रानी दमयंती ने यह व्रत करने पर अनन्त सूत्र बाँध रखा देखा और हँसकर उसे निकाल फेंका।फलस्वरूप राजा पर अनेक विघ्न आये और वे कष्ट में पड़ गये।बाद में ऋषियों के कहने पर दमयंती ने पुनः श्रद्धापूर्वक अनन्त का व्रत किया और अनन्त सूत्र बाँधा।तब उनके समस्त दोष नष्ट हो गये और राजा नल ने पुनः राज्य और सुख-समृद्धि पाई।यही कारण है कि इस दिन अनन्त सूत्र बाँधने की परम्परा आज भी प्रचलित है।
उपसंहारअनन्त चतुर्दशी केवल पूजा-पाठ का पर्व नहीं है, अपितु— सृष्टि के मूल तत्त्व महाविराट पुरुष के स्मरण का दिन है। यह दिन दर्शाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भगवान अनन्त के विराट स्वरूप में ही विद्यमान है। वे ही कारण, कर्ता और आधार हैं। वे शाश्वत, अविनाशी, अखण्ड और अनन्त हैं।अनन्त भगवान की शरण में आने वाला जीव सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर परम शांति और मोक्ष को प्राप्त करता है।
अनन्तः शरणं मम।
अनन्त नारायण स्तोत्रम् ( हिंदी अर्थ सहित )
श्लोक
१) ॐ अनन्ताय नारायणाय महात्मने परात्मने।शरण्याय सर्वभूतानां त्रैलोक्यनाथाय ते नमः॥भावार्थ: हे अनन्त, महात्मा, परमात्मा नारायण! त्रिलोकनायक और समस्त प्राणियों के शरणदाता प्रभु, आपको प्रणाम।
२) अनाद्यनन्तबलिनं सर्वशक्तिमयं प्रभुम्।ध्यानं कुरु महाविष्णुं विश्वनाथं नमोऽस्तु ते॥भावार्थ: हे अनन्त, अनादि, अनन्त बलसम्पन्न, सर्वशक्तिमान विष्णु! आप ही विश्वनाथ हैं, आपको नमस्कार।
३) नमो दिव्याय तेजस्विने सर्वदिग्व्यापी महायशः।सर्वज्ञाय परब्रह्मणे अनन्ताय नमो नमः॥भावार्थ: हे प्रभु! आप दिव्य, सभी दिशाओं में व्याप्त महायशस्वी, सर्वज्ञ और परब्रह्म स्वरूप अनन्त नारायण हैं। आपको प्रणाम।
४) अनन्तकल्याणनिधये लोकानुग्रहकृन् प्रभो।भक्तानां सुखदं नित्यं नारायण नमोऽस्तु ते॥भावार्थ: हे कल्याण के सागर, अनन्त भगवान! आप सभी लोकों पर कृपा करते हैं और भक्तों को सुख देते हैं।
५) आनन्दरूप सदानन्त श्रीवत्सललितेक्षण।चतुर्भुजाय नाथाय नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे सदानन्दमय, श्रीवत्सधारी, चतुर्भुज नारायण! आपकी शरण में आता हूँ।
६) अनन्तचक्षुषे दिव्यज्योतिषे जगतां पते।मम दुःखानि हर्तुं त्वं नारायण नमोऽस्तु ते॥भावार्थ: हे सहस्र नेत्रों से युक्त, दिव्य ज्योति स्वरूप, जगतपालक! मेरे समस्त दुःख हर लीजिये।
७) श्रीधरं पद्मनाभं च वेदान्तसारतत्त्वकम्।भक्तवत्सलमनन्तं नारायणं नमाम्यहम्॥भावार्थ: हे श्रीधर, पद्मनाभ, वेदान्त-सार स्वरूप, भक्तवत्सल अनन्त नारायण! आपको प्रणाम।
८) अनन्तरूपपरमं अनन्तवीर्यतेजसे।देवदेवेश्वराय नाथ नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे अनन्त रूप, अनन्त शक्ति और अनन्त तेज वाले देवाधिदेव, प्रभु नारायण! आपको बार-बार प्रणाम।
९) सिद्धसिद्धिसमृद्धानां भर्त्रे भक्तप्रपालक।दोषदुःखनिवारक अनन्ताय नमो नमः॥भावार्थ: हे सिद्धों के स्वामी और भक्तों के रक्षक! आप दोष और दुःख दूर करने वाले अनन्त प्रभु हैं।
१०) सर्वज्ञाय सर्वशक्तये सर्ववेदविदे प्रभो।अनन्ताय सनातनाय नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान नारायण! आप वेदों के तत्त्वज्ञ हैं, आपको प्रणाम।
११) अनन्तगगनाभासं नभःसंस्थितमव्ययम्।शुभं कुरु सदानन्दं सर्वदा मे हितं प्रभो॥भावार्थ: हे अनन्त! आप आकाश के समान व्यापक, अविनाशी और आनंदमय हैं। कृपाकर सदा मेरा कल्याण करें।
१२) वेदस्वरूपब्रह्मेश निर्विकाराय ते नमः।ज्ञानदातारि नाथाय नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे वेदस्वरूप, ब्रह्मस्वरूप प्रभु! आप ही ज्ञानदाता अनन्त नारायण हैं, आपको प्रणाम।
१३) अनन्त शरणागतानां रक्षपालनकारक।मोक्षप्रदाता हे नाथ नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे अनन्त प्रभु! आप शरणागत भक्तों के रक्षक और मोक्षदायक हैं।
१४) तापत्रयनिवारणं भयहानं कृपामयम्।भवाधारं जगन्नाथं अनन्तं प्रणम्यहम्॥भावार्थ: हे अनन्त! आप ही त्रितापहारी, भय-नाशक और करुणामय जगताधार हैं।
१५) दयासिन्धो लोकनाथ भक्तप्रिय नमोऽस्तु ते।सुन्दर रूप हरिरूप नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे दयासागर, भक्तप्रिय लोकनाथ नारायण! आपको बारंबार प्रणाम।
१६) अनन्ततेजसे नाथ जगेश्वराय ते नमः।विद्यानिधानरूपाय रोगनाशनाय ते नमः॥भावार्थ: हे जगन्नाथ, अनन्त तेजस्वी, समस्त विद्यानिधान और रोगनाशक नारायण! आपको प्रणाम।
१७) शान्तिदायिनि हे नाथ सर्वभूतहिते रत।त्रिलोकनाथ नारायण नमो नमोऽस्तु ते॥भावार्थ: हे अनन्त, जो सभी जीवों का हित और शांति देने वाले हैं, आप त्रिलोकनाथ हैं।
१८) क्षमामूर्ते प्रभो नाथ सर्वशक्तिरूपाय।सर्वत्र व्यापिनं विष्णुं नारायणं नमाम्यहम्॥भावार्थ: हे अनन्त क्षमाशील प्रभु, आप ही सर्वशक्तिस्वरूप सर्वव्यापी विष्णु हैं।
१९) अनन्त भक्तवत्सल सर्वलोकाधिप प्रभो।नमः ते त्रिपुरारीश्वर नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे समस्त लोकपालक, भक्तों के प्रिय अनन्त नारायण! आप त्रिपुरारीश्वर प्रभु हैं।
२०) अनन्त प्राणाधिपति जगन्नाथ नमो नमः।मम जीवितहितं देव कुरु सौख्यं सदा प्रभो॥भावार्थ: हे जीवप्राणाधिपति, जगन्नाथ अनन्त प्रभु! मेरा जीवन सुखमय कर दीजिए।
२१) अनन्तशक्तिसम्पन्न परब्रह्मणि ते नमः।भक्तानां फलदातारं नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे अनन्त शक्ति-सम्पन्न परब्रह्म! आप भक्तों के फलदाता नारायण हैं।
२२) अनन्तनीलनेत्राय श्रीवत्साङ्काय शाश्वते।शरण्याय जगन्नाथाय नमस्ते विष्णवे हरि॥भावार्थ: हे सुन्दर नीललोचन, श्रीवत्सधारी, शाश्वत जगन्नाथ विष्णु! आपको नमस्कार।
२३) अनन्तगोविन्ददेवाय सर्वज्ञाय दयानिधे।पापहन्त्रे जगन्नाथ नमो नारायणाय ते॥भावार्थ: हे अनन्त गोविन्ददेव, सर्वज्ञ, दयासागर, पापों का नाश करने वाले नारायण! आपको नमस्कार।
२४) अनन्तमाधवाय भक्तप्रियाय जगन्नाथ।सर्वकर्मफलदात्रे ते नारायण नमोऽस्तु मे॥भावार्थ: हे अनन्त माधव, भक्तप्रिय प्रभु! आप कर्मफलदाता नारायण हैं।
२५) अनन्तलक्ष्मीपतये श्रीवल्लभाय च प्रभो।सर्वसौख्यप्रदायाय नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे अनन्त लक्ष्मीपति, श्रीवल्लभ प्रभु! आप ही भक्तों को सुख देने वाले हैं।
২৬) अनन्तयोगराजाय योगेश्वरपरात्मने।सर्वसिद्धिप्रदातारं नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे अनन्त योगराज, परमात्मा योगेश्वर! आप सिद्धियों के दाता हैं।
२७) अनन्तजगदीशाय महादेवाय ते नमः।संरक्षकाय लोकानां नारायण नमो नरः॥भावार्थ: हे अनन्त जगदीश, महानदेव महा प्रभु! आप लोकों के रक्षक हैं।
२८) अनन्तभूतनाथाय सर्वशक्त्यात्मक प्रभो।भक्तवत्सल विष्णवे ते नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे अनन्त भूतनाथ, सर्वशक्तिस्वरूप प्रभु, भक्तवत्सल विष्णु! आपको नमस्कार।
२९) अनन्तप्रेमसिन्धो ते जगन्नाथ महाप्रभो।शरणागतत्राणाय नारायण नमो नमः॥भावार्थ: हे प्रेमसिन्धु अनन्त प्रभु, शरणागतों के उद्धारक नारायण! आपको नमस्कार।
३०) अनन्तः शिवरूपोऽसि महारुद्रः स्वयं प्रभुः।मृत्युञ्जयो महासङ्घारि नारायण नमोऽस्तु ते॥भावार्थ:हे अनन्त! आप ही शिवरूप धारण करने वाले हैं, आप ही महारुद्र हैं, आप ही मृत्यु को जीतने वाले मृत्युंजय और संहारकर्ता हैं। हे नारायण! आपको बारम्बार प्रणाम।
३१) अनन्तो ब्रह्मविष्णुश्च स्वयं रुद्रः सनातनः।आदि–मध्यान्तहीनश्च परमात्मा सनातनः॥भावार्थ:अनन्त ही ब्रह्मा हैं, वे ही विष्णु हैं और वे ही सनातन रुद्र हैं। वे ही आदि, मध्य और अंत से रहित परमात्मा हैं – शाश्वत और अविनाशी।
३२) यः पठेत् स्तोत्रमेतद्धि श्रद्धाभक्तिसमन्वितः।सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोके महीयते॥भावार्थ:जो भक्त इस “अनन्त नारायण स्तोत्र” का श्रद्धा और भक्ति से पाठ करता है, वह पापमुक्त होकर अंततः परम विष्णुधाम को प्राप्त होता है।
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